कंपनिया और सरकार अपने निर्माण और एक्सपेंशन प्लान के लिए कई तरह से पैसों का इंतजाम कर सकतीं है। वह चाहे एक पब्लिक कम्पनी हों या फिर प्राइवेट कंपनी, उसके पास शेयर बाजार से पैसे जुटाने समेत कई और तरीके है जैसे की बड़े इन्वेस्टर्स की इन्वेस्टमेंट, बैंक से कर्जा और हमारे और आपके जैसे आम लोगों से कर्जा आदि। आम लोगो से कर्जा लेने के लिए कम्पनी के पास जो तरीके है उनमे बॉन्ड और डिबेंचर भी शामिल है। डिबेंचर के बारे हमने हमारे पहले के आर्टिकल में बात की थी, लेकिन आज के आर्टिकल ’Bond meaning in Hindi’ में हम जानेंगे की बॉन्ड क्या होते है और इनमे इन्वेस्टमेंट से हमे कैसे फायदा होता है।
बॉन्ड क्या होते है – Bond meaning in Hindi
बॉन्ड एक फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट होते है जिनके जरिए एक कम्पनी आम लोगो से लोन के रूप में पैसे जुटा सकतीं है। यह एक तरह का कॉन्ट्रैक्ट होता है जो एक कंपनी और बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति के बीच में होता है। इसके अंतर्गत बॉन्ड में इन्वेस्ट की गईं रकम का इस्तेमाल कंपनी अपने कामों के लिए करती है और उसके बदले इन्वेस्टर को इंट्रेस्ट रेट जिसे की कूपन रेट भी कहते है के रूप में बॉन्ड के पूरे टेन्योर के दौरान रिटर्न मिलती है। आमतौर पर यह इंट्रेस्ट सालाना दिया जाता है लेकिन यह मंथली या हाफ ईयरली भी हो सकता है। बॉन्ड की मैच्योरिटी आने पर इनकी फेस वैल्यू के अनुसार प्रिंसिपल अमाउंट को इन्वेस्टर को लौटा दिया जाता है।
बॉन्ड आमतौर पर कंपनी, सरकार, municipal कॉरपोरेशन आदि द्वारा जारी किए जाते है। इन्हे जारी करते वक्त कंपनी इनमे मिलने वाला इंट्रेस्ट और मैच्योरिटी डेट को घोषित कर देती है। बांड्स को एक सेफ इन्वेस्टमेंट माना जाता है जो हमारी रेगुलर इनकम का एक अच्छा सोर्स बन सकते है।
बॉन्ड कितने प्रकार के होते है – Bond kitne prakaar ke hote hai
भारत में कई तरह के बॉन्ड इश्यू किए जाते है। यह बॉन्ड मैच्योरिटी पीरियड, फेस वैल्यू, कूपन और कम्पनी के आधार पर अलग अलग हों सकते है जिनके बारे में नीचे बताया गया है।
इश्यू करने वाले के आधार पर
गवर्नमेंट बॉन्ड: गवर्नमेंट बॉन्ड सेंट्रल और स्टेट गवर्नमेंट द्वारा जारी किए जाते है, जिनसे इक्ट्ठा हुए पैसे का इस्तेमाल वह सरकारी प्रोजेक्ट, इन्फ्रास्ट्रक्चर और लोगो के भलाई के लिए चलाई जाने वाली स्कीम में करती है। सरकार द्वारा बैक्ड होने के कारण इनमे शामिल रिस्क बहुत कम होता है और मैच्योरिटी पीरियड आमतौर पर 5 से 20 साल तक का हो सकता है।
PSU बॉन्ड: PSU मतलब पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (Public Sector Undertakings)। ऐसे बॉन्ड उन कंपनियों द्वारा इश्यू किए जाते है जिनमे सरकार की भागीदारी 51% से ज्यादा होती है। इस तरह के बॉन्ड मीडियम और लॉन्ग टर्म टेन्योर के लिए इश्यू किए जाते है।
कॉरपोरेट बॉन्ड: कॉरपोरेट बॉन्ड प्राइवेट कंपनियों द्वारा जारी किए जाते है जिनसे मिले पैसे का इस्तेमाल वह अपने एक्सपेंशन और कंस्ट्रक्शन आदि के लिए करती है। इनका रिस्क फैक्टर और मिलने वाला इंट्रेस्ट गवर्नमेंट बॉन्ड के ज्यादा होता है और यह आमतौर पर मीडियम से लॉन्ग टर्म के लिए जारी किए जाते है जिनमे इंट्रेस्ट की पेमेंट मंथली की जाती है।
कूपन रेट के आधार पर
फिक्स्ड रेट बॉन्ड: फिक्स्ड रेट बॉन्ड का कूपन रेट बॉन्ड के पूरे टेन्योर के दौरान एक सा ही रहता है। यानी की बॉन्ड को इश्यू करते वक्त जो कूपन या इंट्रेस्ट रेट निर्धारित किया जाता है इन्वेस्टर को उसी के अनुसार बॉन्ड के पूरे टेन्योर में रिटर्न मिलती है। ये हमे अपनी इन्वेस्टमेंट पर एक गैरेंटेड रिटर्न देने का काम करता है।
फ्लोटिंग रेट बॉन्ड: फ्लोटिंग रेट बॉन्ड पर दिया जाने वाला कूपन रेट फिक्स्ड नही होता। यह कूपन रेट बॉन्ड के पूरे टेन्योर या मैच्योरिटी तक इसके सेट किए गए बेंचमार्क में बदलाव के अनुसार बदलता रहता है। भारत में RBI द्वारा निर्धारित किया जाने वाला रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट इनके लिए बेंचमार्क का काम करता है।
जीरो कूपन बॉन्ड: जीरो कूपन बॉन्ड में इन्वेस्टर को कोई भी इंट्रेस्ट की पेमेंट नही की जाती। यह बॉन्ड अपनी फेस वैल्यू से डिस्काउंट वैल्यू पर इश्यू किए जाते है और प्राइस का यही फर्क इन्वेस्टर के लिए रिटर्न का काम करता है। उदाहरण के लिए एक जीरो कूपन बॉन्ड की फेस वैल्यू 1000 हो सकती है और उसका इश्यू प्राइस 800 रुपए हो सकता है। इस केस में बॉन्ड के प्राइस का फर्क यानी 200 रुपए इन्वेस्टर का प्रॉफिट है। आमतौर पर इस बॉन्ड का मैच्युरिटी पीरियड 10 से 15 साल का होता है।
टेन्योर के आधार पर
शॉर्ट टर्म बॉन्ड: शॉर्ट टर्म बॉन्ड का मैच्योरिटी पीरियड जैसे की नाम से ही जाहिर है कम समय के लिए होता है। यह 1 से 3 साल तक का हो सकता है लॉन्ग टर्म बॉन्ड के मुकाबले यह सरकारी इंट्रेस्ट रेट में बदलाव से कम प्रभावित होते है।
Intermediate बॉन्ड: वह बॉन्ड जिनका मैच्योरिटी पीरियड 4 से 10 सालो का होता है उन्हे इंटरमीडिएट या मीडियम टर्म बॉन्ड कहते है।
लॉन्ग टर्म बॉन्ड: लॉन्ग टर्म बॉन्ड का मैच्योरिटी पीरियड 10 साल या उससे ज्यादा का होता है। यह उन इन्वेस्टर के लिए उपयुक्त है जिन्हे लम्बे समय तक एक रेगुलर इनकम चाहिए।
टैक्सेशन के आधार पर
टैक्स फ्री बॉन्ड: टैक्स फ्री बॉन्ड में इन्वेस्टर को दी जाने वाली इंट्रेस्ट पेमेंट पर टैक्स की देनदारी नही होती यानी की आपको बॉन्ड इन्वेस्टमेंट से होने वाली इनकम टैक्स फ्री होती है। यह बॉन्ड मुख्यता सरकार, muncipal कॉरपोरेशन और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग जैसे की NTPC, REC, PFC आदि द्वारा जारी किए जाते है।
इन सब के इलावा भी बॉन्ड की कई किस्में होती है, जिनमे शामिल है:
Prepetual बॉन्ड: Prepetual बॉन्ड में इसे जारी करने वाली कम्पनी द्वारा प्रिंसिपल अमाउंट की वापसी की कोई गारंटी नहीं होती। यानी की इन्वेस्टर जब तक चाहे तब तक इसमें इन्वेस्टेड रह सकता है जिसके दौरान उसे इंट्रेस्ट के रूप में इनकम मिलती रहती है। इन बॉन्ड का कोई फिक्स्ड मैच्योरिटी टाइम नही होता। कंपनी चाहे तो इन्हे रिडीम करने के लिए काल कर सकती है या फिर इन्वेस्टर इन्हे सेकेंडरी मार्केट में बेच कर अपना पैसा वापस ले सकते है।
इनफ्लेशन लिंक्ड बॉन्ड: इनफ्लेशन लिंक्ड बॉन्ड इन्वेस्टर को इनफ्लेशन यानी की महंगाई से बचाने में मदद करते है। यह आमतौर पर सरकार द्वारा इश्यू किए जाते है और इनका इंट्रेस्ट और प्रिंसिपल वैल्यू इनफ्लेशन रेट के अनुसार घट या बढ़ सकता है।
कन्वर्टेबल बॉन्ड: इन बॉन्ड में डेब्ट और इक्विटी दोनो के फीचर होते है। इस तरह को बॉन्ड को अगर इन्वेस्टर चाहे हो तो कंपनी के शेयर में तब्दील कर सकता है जिस से उसे एक शेयरहोल्डर के सभी फायदे मिलते है।
कॉलेबल बॉन्ड: कॉलेबल बॉन्ड को कम्पनी या कॉरपोरेशन इसकी मैच्योरिटी से पहले ही रिडीम करने के लिए काल कर सकती है। इस तरह के बॉन्ड में कंपनी के पास यह ऑप्शन होती है की वह जरूरत पड़ने पर मैच्योरिटी से पहले इन्वेस्टर को उनका पैसा लौटा दे। इसी बात की भरपाई के लिए कालेबल बॉन्ड में ऑफर किया जाने वाला इंट्रेस्ट रेट बाकी बॉन्ड की तुलना में ज्यादा होता है।
Putable बॉन्ड: Putable बॉन्ड कालेबल बॉन्ड के विपरीत होते है। जहां कालेबल बॉन्ड में कंपनी से पास बॉन्ड को रिडीम करने का अधिकार होता है वहीं Putable बॉन्ड इन्वेस्टर के पास यह अधिकार होता है की वह बॉन्ड इश्यू करने वाली कम्पनी को मैच्योरिटी से पहले ही बॉन्ड को वापिस खरीदने के लिए कह सकते है।
बॉन्ड की विशेषताएं – Bond ki Visheshtaye
Issuer: Issuer यानी की वह पार्टी जिसके द्वारा बॉन्ड इश्यू किए जाते है। यह वह संस्थाएं होती है जिन्हे फंडिंग की जरूरत होती है और जिसके लिए वह बॉन्ड इश्यू करके आम लोगो से उसका इंतजाम करती है।
मैच्योरिटी: मैच्योरिटी यानी की वह तारीख या समय जिसके आने पर बॉन्ड की फेस वैल्यू अनुसार इन्वेस्टर को उसका पैसा लौटाया जाना होता है। Prepetual बॉन्ड के इलावा सभी तरह के बॉन्ड की एक फिक्स्ड मैच्योरिटी डेट होती है।
फेस वैल्यू: फेस वैल्यू बॉन्ड की वह वैल्यू होती है जो इन्वेस्टर को बॉन्ड की मैच्योरिटी आने पर कंपनी द्वारा वापिस की जानी होती है। इसे Par वैल्यू या रिडेंप्शन वैल्यू भी कहते है जो बॉन्ड पर प्रिंटेड होती है।
कूपन रेट: कूपन रेट वह इंट्रेस्ट रेट होता है जो एक कम्पनी अपने बॉन्ड में इन्वेस्ट करने वाले व्यक्ति को देती है। यह इंट्रेस्ट रेट कम्पनी की creditworthness, उसकी रेटिंग और बॉन्ड के प्रकार अनुसार अलग अलग हो सकता है।
यील्ड: यील्ड उस रिटर्न को कहते है जो एक इन्वेस्टर को उनकी बॉन्ड में इन्वेस्टमेंट के बदले एक फिक्स्ड टाइम पीरियड के बाद मिलती है। इसे कैलकुलेट करने में बॉन्ड की फेस वैल्यू, क्रेडिट रेटिंग और बॉन्ड का मार्केट प्राइस अहम रोल अदा करते है।
क्रेडिट रेटिंग: किसी भी इश्यू किए जाने वाले बॉन्ड की क्रेडिट रेटिंग को अलग अलग क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह रेटिंग की जाने वाली कंपनी की बैलेंस शीट और फाइनेंशियल परफॉर्मेंस को दर्शाती है। जितनी ज्यादा रेटिंग होगी बॉन्ड को उतना ही इन्वेस्टमेंट के लिए सिक्योर और बेहतर माना जाता है।
बॉन्ड मार्केट क्या होती है – Bond market kya hoti hai
बॉन्ड मार्केट वह जगह है जहां पर लोग, सरकार और कॉरपोरेशन द्वारा इश्यू किए गए बॉन्ड को खरीद सकते है। भारत में मुख्यता दो तरह की बॉन्ड मार्केट काम करती है:
प्राइमरी बॉन्ड मार्केट: प्राइमरी मार्केट में कम्पनी, सरकार, कॉरपोरेशन आदि पहली बार अपने बॉन्ड को इन्वेस्टर के लिए ऑफर करती है। यानी की जब कोई बॉन्ड पहली बार पब्लिक सब्सक्रिप्शन के लिए खोला जाता है तो उसे प्राइमरी मार्केट से खरीदा जा सकता है।
सेकेंडरी मार्केट: सेकेंडरी मार्केट में पहले से इश्यू किए गए बॉन्ड की ट्रेडिंग की जाती है। यह बॉन्ड, इन्वेस्टर्स, स्टॉक एक्सचेंज और OTC मार्केट में ट्रेड हो सकते है जिन्हे आप खुद या अपने ब्रोकर के द्वारा खरीद सकते है।
बॉन्ड में कैसे करे इन्वेस्ट – Bond me kaise kare invest
बीते कुछ समय में बॉन्ड में इन्वेस्ट करना काफी आसान हो गया है। नीचे दिए माध्यमों द्वारा आप आसानी से बॉन्ड में इन्वेस्ट कर सकते है।
स्टॉक एक्सचेंज: काफी सारे बॉन्ड प्राइमरी मार्केट में इश्यू होने के बाद स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट हो जाते है जहां इनकी रेगुलर ट्रेडिंग होती है और आप इनको खरीद और बेच सकते है। इसके लिए आपके पास ट्रेडिंग और डीमैट अकाउंट होना चाहिए और यह बॉन्ड आपके डीमैट अकाउंट में ही स्टोर होते है।
RBI Direct Retail: ज्यादातर गवर्नमेंट बॉन्ड को RBI की डायरेक्ट रिटेल साइट से खरीदा और बेचा जा सकता है। इस साइट पर अपना अकाउंट बनाकर इन्वेस्टर आसानी से बॉन्ड में इन्वेस्ट कर सकते है।
ब्रोकर: ब्रोकर द्वारा बॉन्ड को खरीदना बॉन्ड में इन्वेस्ट करने का सबसे पुराना और प्रचलित तरीका है। इसमें इन्वेस्टर अपने ब्रोकर द्वारा बॉन्ड की खरीद और बिकवाली करते है। ब्रोकर आपके लिए बॉन्ड को डायरेक्टली इश्यू के समय या फिर OTC मार्केट से खरीद सकते है।
म्यूचुअल फंड द्वारा: अगर आपको बॉन्ड मार्केट के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है तो भी indirectly आप इनमे इन्वेस्ट कर सकते है। सभी amc द्वारा डेब्ट म्यूचुअल फंड ऑफर किए जाते है जो मुख्यता बॉन्ड में इन्वेस्ट करते है। इन म्यूचुअल फंड स्कीम में इन्वेस्ट करके आप बॉन्ड रिटर्न का फायदा उठा सकते है।
ऑनलाइन प्लेटफार्म: आजकल कई सारे ऑनलाइन प्लेटफार्म है जो आपको घर बैठे सिर्फ अपने लैपटॉप या मोबाइल की मदद से बॉन्ड में इन्वेस्ट करने की सहूलियत देते है, जैसे की GoldenPie और Bondsindia आदि।
बॉन्ड के फायदे – Bond ke fayde
डायवर्सिफिकेशन: बॉन्ड में इन्वेस्टमेंट आपको फिक्स्ड और रेगुलर इनकम देने का काम करता है। जहां इक्विटी में इन्वेस्टमेंट मार्केट लिंक्ड होने के कारण ज्यादा रिस्की होती है, बॉन्ड में की गई इन्वेस्टमेंट उसके मुकाबले में कहीं कम रिस्की होती है। यह हमारे पोर्टफोलियो को डायवर्सिफाई करने और अच्छी रिटर्न देने का काम करते है।
सिक्योरिटी: बॉन्ड म्यूचुअल फंड और स्टॉक की तुलना में ज्यादा सिक्योर होते है। इन्हे रेटिंग एजेंसी द्वारा अलग अलग रेटिंग दी जाती है जिनके आधार पर हम बॉन्ड में शामिल रिस्क और सिक्योरिटी का अंदाजा लगा सकते है।
रेगुलर इनकम: बॉन्ड इन्वेस्टमेंट करने पर हमे कूपन रेट के अनुसार एक फिक्स्ड टाइम इंटरवल पर इंट्रेस्ट की पेमेंट की जाती है जो हमारे लिए एक रेगुलर इनकम का अच्छा साधन हो सकती है।
स्थाई रिटर्न: हालांकि बॉन्ड की यील्ड और इंट्रेस्ट रेट मार्केट लिंक्ड होते है फिर भी कुछेक केस को छोड़कर इनकी रिटर्न स्थाई ही रहती है।
लॉक इन पीरियड ना होना: बॉन्ड में हम प्राइमरी और सेकेंडरी मार्केट दोनो के जरिए इन्वेस्ट कर सकते है। बॉन्ड में कोई भी लॉक इन ना होने के कारण हम इन्हे प्राइमरी मार्केट से खरीद कर कभी भी सेकेंडरी मार्केट जिनमे स्टॉक एक्सचेंज और OTC आदि शामिल है, में बेच सकते है।
बॉन्ड के नुकसान – Bond ke nuksaan
इनफ्लेशन रिस्क: कम इंट्रेस्ट होने के कारण आमतौर पर बॉन्ड की रिटर्न लॉन्ग टर्म में इनफ्लेशन को मात देने में असमर्थ रहती है। अगर देश में इनफ्लेशन की दर ज्यादा हो तो बॉन्ड में की गई इन्वेस्टमेंट अक्सर लॉन्ग टर्म गोल को पूरा करने में असमर्थ रहती है।
इंट्रेस्ट रेट रिस्क: बॉन्ड का प्राइस उसके इंट्रेस्ट रेट से लिंक्ड होता है। अगर इंट्रेस्ट रेट कम होता है तो बॉन्ड का प्राइस बढ़ता है और अगर इंट्रेस्ट ज्यादा होता है तो बॉन्ड का प्राइस कम हो जाता है। इस कारण अगर मार्केट में इंट्रेस्ट रेट बढ़ता है तो बॉन्ड इन्वेस्टमेंट में घाटे का सामना करना पड़ सकता है।
कम रिटर्न: भारत में बॉन्ड पर ऑफर की जाने वाली एवरेज रिटर्न 7 से 8% तक रहती है। यह स्टॉक मार्केट और इक्विटी म्यूचुअल फंड की तुलना में काफी कम है। बॉन्ड पे लगने वाला टैक्स भी इक्विटी से ज्यादा होता है जो मिलने वाली रिटर्न को और कम करने का काम करता है।
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निष्कर्ष – Conclusion
बॉन्ड में इन्वेस्टमेंट करना हमारे और इसे इश्यू करने वाली कम्पनी दोनों के लिए फायदेमंद है। कम्पनी इसके द्वारा आसानी से फंडिंग का इंतजाम कर सकती है वहीं इन्वेस्टर के पास यह एक रेगुलर इनकम पाने और अपने पोर्टफोलियो को डायवर्सिफाई करने का अच्छा साधन है। हालांकि बॉन्ड इक्विटी से ज्यादा सेफ इंस्ट्रूमेंट है, लेकिन फिर भी इनमे इन्वेस्टमेंट करते समय कई बातो का ध्यान रखना जरूरी है जैसे की कूपन रेट, क्रेडिट रेटिंग, टेन्योर आदि। जो लोग कम रिस्क में एक अच्छी रिटर्न का लाभ उठाना चाहते है, बॉन्ड उनके लिए इन्वेस्टमेंट का एक अच्छा जरिया हो सकता है।